न आती थी कहीं दिल में नज़र आग
मगर फिर भी जली है रात भर आग
खुला है दिल में इक दाग़ों का गुलशन
उगलता है मिरा ज़ख़्म-ए-जिगर आग
बुलाया था मुझे बज़्म-ए-तरब में
लगा दी दिल में क्यूँ मुँह फेर कर आग
दिखाया तूर पर मूसा को जल्वा
कहाँ जा कर बनी है राहबर आग
ये गिर्या और फिर आह-ए-शरर-बार
तरक़्क़ी पर इधर पानी उधर आग
वो मेरा दिल जलाना खेल समझे
करेगी रफ़्ता रफ़्ता ये असर आग
शब-ए-ग़म इस क़दर रोया है कोई
कि ढूँडे भी नहीं मिलती सहर आग
वो दिल पर हाथ रख कर गए हैं
कि अब जलने न पाए रात भर आग
ज़माने को जलाता है वो ज़ालिम
न बन जाएँ कहीं शम्स-ओ-क़मर आग
ये किस की सर्द-मेहरी का असर था
न देखी तूर पर भी जल्वा-गर आग
करूँ क्या आह-ए-सोज़ाँ हिज्र की शब
फ़रिश्तों के जला देती है पर आग
ये दुश्मन का मकान अपना ही घर है
लगा दें आप बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर आग
दिल-ए-सोज़ाँ ये कह दे चश्म-ए-तर से
ख़ुदा के वास्ते ठंडी न कर आग
हसद की आग में जलता है अब तक
बरसती है अदू की क़ब्र पर आग
वुज़ू हो जाएँगे ज़ाहिद के ठंडे
बुझा देगी किसी की चश्म-ए-तर आग
दिल-ए-नादाँ को हम समझा चुके थे
मोहब्बत आग है ऐ बे-ख़बर आग
सुना मज़मूँ जवाब-ए-ख़त का 'रासिख़'
उठा लाया कहीं से नामा-बर आग

ग़ज़ल
न आती थी कहीं दिल में नज़र आग
मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़