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मुज़्तरिब हैं वक़्त के ज़र्रात सूरज से कहो | शाही शायरी
muztarib hain waqt ke zarraat suraj se kaho

ग़ज़ल

मुज़्तरिब हैं वक़्त के ज़र्रात सूरज से कहो

अहमद हमदानी

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मुज़्तरिब हैं वक़्त के ज़र्रात सूरज से कहो
आ गई क्यूँ आग की बरसात सूरज से कहो

हम हैं और शो'लों की लपटें बढ़ रही हैं हर तरफ़
क्या हुई वो छाँव की इक बात सूरज से कहो

नाचते हैं ये भयानक साए आख़िर किस लिए
ज़ेर-ए-लब क्या कह रही है रात सूरज से कहो

एक तपता दश्त है और साथ कोई भी नहीं
किस सफ़र में है अकेली ज़ात सूरज से कहो

रेंगते हैं नाग अंदेशों के साँसों में यहाँ
ढलने में आती नहीं है रात सूरज से कहो

ज़ो'म होने का रहा इक उम्र हम को और आज
जल गए सब धूप में जज़्बात सूरज से कहो