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मुस्तक़िल दर्द का सैलाब कहाँ अच्छा है | शाही शायरी
mustaqil dard ka sailab kahan achchha hai

ग़ज़ल

मुस्तक़िल दर्द का सैलाब कहाँ अच्छा है

सूरज नारायण मेहर

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मुस्तक़िल दर्द का सैलाब कहाँ अच्छा है
वक़्फ़ा-ए-सिलसिला-ए-आह-ओ-फ़ुग़ां अच्छा है

हो न जाए मिरे लहजे का असर ज़हरीला
इन दिनों मुँह से निकल जाए ज़बाँ अच्छा है

मुझ से मांगेगी मिरी आँख गुलाबी मंज़र
हो मिरे हाथ में तस्वीर-ए-बुताँ अच्छा है

जिन के सीने में तअस्सुब नहीं पलता कोई
ऐसे लोगों के लिए सारा जहाँ अच्छा है

कितने चालाक हैं ये ऊँची हवेली वाले
हम से कहते हैं कि मिट्टी का मकाँ अच्छा है

ज़ेर-ए-लब रेंगता रहता है तबस्सुम 'सूरज'
इस क़यामत से तो आहों का धुआँ रहता है