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मुस्तक़र की ख़्वाहिश में मुंतशिर से रहते हैं | शाही शायरी
mustaqar ki KHwahish mein muntashir se rahte hain

ग़ज़ल

मुस्तक़र की ख़्वाहिश में मुंतशिर से रहते हैं

साबिर

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मुस्तक़र की ख़्वाहिश में मुंतशिर से रहते हैं
बे-कनार दरिया में लफ़्ज़ लफ़्ज़ बहते हैं

सब उलट-पलट दी हैं सर्फ़-ओ-नहव-ए-देरीना
ज़ख़्म ज़ख़्म जीते हैं लम्हा लम्हा सहते हैं

यार लोग कहते हैं ख़्वाब का मज़ार उस को
अज़-रह-ए-रिवायत हम ख़्वाब-गाह कहते हैं

रौशनी की किरनें हैं या लहू अंधेरे का
सुर्ख़-रंग क़तरे जो रौज़नों से बहते हैं

ये क्या बद-मज़ाक़ी है गर्द झाड़ते क्यूँ हो
इस मकान-ए-ख़स्ता में यार हम भी रहते हैं