मुश्किल ये इम्तियाज़ तिरी राहगुज़र में है
मंज़िल सफ़र में है कि मुसाफ़िर सफ़र में है
हूँ मुज़्तरिब मगर तिरी सूरत नज़र में है
पहलू भी इक सुकून का दर्द-ए-जिगर में है
थोड़ी सी ख़ाक मैं ने उठा ली ज़मीन से
अब सारी ज़िंदगी का ख़ुलासा नज़र में है
ऐ आफ़्ताब-ए-सुब्ह इधर भी कोई किरन
मुद्दत से इक ग़रीब उमीद-ए-सहर में है
पूछो न एक एक से मेरे जुनूँ का राज़
मेरे जुनूँ का राज़ तुम्हारी नज़र में है
का'बे को मानता हूँ मगर इस यक़ीं के साथ
का'बा भी इक मक़ाम तिरी रहगुज़र में है
माना कि सब ने आप को देखा है शौक़ से
पहचानने ख़ुलूस-ए-नज़र किस नज़र में है
फ़स्ल-ए-बहार आई है कैसे यक़ीं करें
'शारिब' है जिस का नाम वो दीवाना घर में है

ग़ज़ल
मुश्किल ये इम्तियाज़ तिरी राहगुज़र में है
शारिब लखनवी