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मुसलसल अश्क-बारी कर रहा था | शाही शायरी
musalsal ashk-bari kar raha tha

ग़ज़ल

मुसलसल अश्क-बारी कर रहा था

लियाक़त जाफ़री

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मुसलसल अश्क-बारी कर रहा था
मैं अपनी आबियारी कर रहा था

मुझे वो ख़्वाब फिर से देखना था
मैं ख़ुद पे नींद तारी कर रहा था

कई दिन तक था मेरी दस्तरस में
मैं अब दरिया को जारी कर रहा था

मुझे रुक रुक के पंछी देखते थे
मैं पत्थर पर सवारी कर रहा था

गुज़रना था बहुत मुश्किल उधर से
दरीचा चाँद-मारी कर रहा था

कोई एटम था मेरे जिस्म-ओ-जाँ में
मैं जिस की ताब-कारी कर रहा था

सफ़ीने सब के सब ग़र्क़ाब कर के
समुंदर आह-ओ-ज़ारी कर रहा था

मुझे फ़ितरत भी घिसती जा रही थी
मैं ख़ुद भी रेग-मारी कर रहा था

मेरी ड्यूटी थी ख़ेमों की हिफ़ाज़त
मगर मैं आब-दारी कर रहा था

सितारे टिमटिमाना रुक गए थे
मैं फिर अख़्तर-शुमारी कर रहा था

मुझे भिड़ना था किस वहशी से लेकिन
मैं किस पागल से यारी कर रहा था

बहुत से काम करने थे 'लियाक़त'
जिन्हें मैं बारी बारी कर रहा था