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मुसाफ़िरों का कभी ए'तिबार मत करना | शाही शायरी
musafiron ka kabhi etibar mat karna

ग़ज़ल

मुसाफ़िरों का कभी ए'तिबार मत करना

क़ैसर-उल जाफ़री

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मुसाफ़िरों का कभी ए'तिबार मत करना
जहाँ कहा था वहाँ इंतिज़ार मत करना

में नींद हूँ मिरी हद है तुम्हारी पलकों तक
बदन जला के मिरा इंतिज़ार मत करना

में बच गया हूँ मगर सारे ख़्वाब डूब गए
मिरी तरह भी समुंदर को पार मत करना

बहा लो अपने शहीदों की क़ब्र पर आँसू
मगर ये हुक्म है कतबे शुमार मत करना

हवा अज़ीज़ है लेकिन ये उस की ज़िद क्या है
तुम अपने घर के चराग़ों को प्यार मत करना

ये वक़्त बंद दरीचों पे लिख गया 'क़ैसर'
मैं जा रहा हूँ मिरा इंतिज़ार मत करना