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मुसाफ़िर रास्ते में है अभी तक | शाही शायरी
musafir raste mein hai abhi tak

ग़ज़ल

मुसाफ़िर रास्ते में है अभी तक

ख़ालिद इबादी

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मुसाफ़िर रास्ते में है अभी तक
नहीं पहुँचा उजाला तीरगी तक

गुलों में चाँद खिलने के ये दिन हैं
मगर खिलती नहीं है इक कली तक

ज़रा सा दर्द और इतनी दवाएँ
पसंद आई नहीं चारागरी तक

बरहना जिस्म पर दो-चार धब्बे
तमाशा देखते हैं अजनबी तक

वो ऐसी क़ीमती शय भी नहीं थी
लुटी तो याद आती है अभी तक

लिखा ख़ंजर से तेरा नाम दिल पर
हमें आती नहीं दीवानगी तक

उसे तस्वीर करने की लगन में
'इबादी' भूल बैठे ख़ुद-कुशी तक