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मुसाफ़िर को सफ़र का मसअला है | शाही शायरी
musafir ko safar ka masala hai

ग़ज़ल

मुसाफ़िर को सफ़र का मसअला है

मुज़दम ख़ान

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मुसाफ़िर को सफ़र का मसअला है
अगर तो है मगर का मसअला है

सहाफ़ी को तिरे कच्चे मकाँ से
है लेना क्या ख़बर का मसअला है

मैं साहब मारने आया हूँ तुम को
ये मेरे अपने सर का मसअला है

घड़ी पर वक़्त देखो क्या हुआ है
मुझे जाना है घर का मसअला है

ये हफ़्ते या महीने का नहीं है
मोहब्बत उम्र भर का मसअला है

नहीं कि तुम नहीं हो ख़ूबसूरत
मुझे थोड़ा सतर का मसअला है

गटर कैसे खुला और क्यूँ खुला है
भला ये भी गटर का मसअला है

हमारी मुफ़्लिसी भी इश्क़िया है
कि आलू है मटर का मसअला है