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मुरझाए हुए फिर गुल-ए-तर देख रही हूँ | शाही शायरी
murjhae hue phir gul-e-tar dekh rahi hun

ग़ज़ल

मुरझाए हुए फिर गुल-ए-तर देख रही हूँ

अज़ीज़ बदायूनी

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मुरझाए हुए फिर गुल-ए-तर देख रही हूँ
ना-क़द्री-ए-अर्बाब-ए-हुनर देख रही हूँ

फिर चश्म-ए-तग़ाफ़ुल से तिरी हश्र बपा है
मैं गर्दिश-ए-दौराँ की नज़र देख रही हूँ

मिज़्गाँ पे लरज़ते हुए अश्कों के दिए हैं
वाबस्ता-ए-जाँ बर्क़-ओ-शरर देख रही हूँ

क्या हुस्न-ए-बसारत में बसीरत की कमी है
कुछ अहल-ए-नज़र चाक-ए-जिगर देख रही हूँ

पिंदार-ए-वफ़ा तमकनत-ए-होश ख़बर-दार
अफ़्लाक पे धरती के क़मर देख रही हूँ

अब तक ये रिवायात-ए-कुहन जाग रही हैं
कुछ लाल-ओ-गुहर ख़ाक-बसर देख रही हूँ

कुछ तेरी निगाहों ने दिखाया है तमाशा
कुछ तुर्फ़ा ज़माने का असर देख रही हूँ

तस्ख़ीर-ए-मह-ओ-मेहर के बा-वस्फ़ 'अज़ीज़' आज
उजड़े हुए ख़ामोश नगर देख रही हूँ