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मुर्ग़-ए-जाँ को ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ जाल है | शाही शायरी
murgh-e-jaan ko zulf-e-pechan jal hai

ग़ज़ल

मुर्ग़-ए-जाँ को ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ जाल है

किशन कुमार वक़ार

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मुर्ग़-ए-जाँ को ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ जाल है
जाल क्या ऐ जान-ए-जाँ जंजाल है

आओ हाज़िर सर पए पामाल है
जान लब पर बहर-ए-इस्तिक़बाल है

ख़ाक हो सरसब्ज़ तुख़्म-ए-आशिक़ी
है ज़मीं आस आसमान ग़िर्बाल है

हुस्न यूसुफ़ का बिका बाज़ार में
इश्क़ का राईल के इक़बाल है

जो मिरे लब पर हुआ हसरत का ख़ून
वो बुख़ार-ए-शौक़ का तबख़ाल है

बोलता है आज-कल तूती मिरा
ग़ैर की गलती वहाँ कब दाल है

फ़ौज-ए-ख़त आती है ऐ सुल्तान-ए-हुस्न
मुल्क-ए-रुख़ से तेरा इस्तीसाल है

है निकलती बात उन की बात से
चाल वो चलते हैं जिस में जाल है

क्या लिखूँ वस्फ़ अच्छी सूरत का 'वक़ार'
जिंस-ए-नाक़िस के लिए दल्लाल है