EN اردو
मुरव्वतों पे वफ़ा का गुमाँ भी रखता था | शाही शायरी
murawwaton pe wafa ka guman bhi rakhta tha

ग़ज़ल

मुरव्वतों पे वफ़ा का गुमाँ भी रखता था

इरफ़ान सिद्दीक़ी

;

मुरव्वतों पे वफ़ा का गुमाँ भी रखता था
वो आदमी था ग़लत-फ़हमियाँ भी रखता था

बहुत दिनों में ये बादल इधर से गुज़रा है
मिरा मकान कभी साएबाँ भी रखता था

अजीब शख़्स था बचता भी था हवादिस से
फिर अपने जिस्म पे इल्ज़ाम-ए-जाँ भी रखता था

डुबो दिया है तो अब इस का क्या गिला कीजे
यही बहाओ सफ़ीने रवाँ भी रखता था

तू ये न देख कि सब टहनियाँ सलामत हैं
कि ये दरख़्त था और पत्तियाँ भी रखता था

हर एक ज़र्रा था गर्दिश में आसमाँ की तरह
मैं अपना पाँव ज़मीं पर जहाँ भी रखता था

लिपट भी जाता था अक्सर वो मेरे सीने से
और एक फ़ासला सा दरमियाँ भी रखता था