मुक़र्रर कुछ न कुछ इस में रक़ीबों की भी साज़िश है
वो बे-परवा इलाही मुझ पे क्यूँ गर्म-ए-नवाज़िश है
प-ए-मश्क़-ए-तग़ाफ़ुल आप ने मख़्सूस ठहराया
हमें ये बात भी मिंजुमल-ए-असबाब नाज़िश है
मिटा दे ख़ुद हमें गर शिकवा-ए-ग़म मिट नहीं सकता
जफ़ा-ए-यार से ये आख़िरी अपनी गुज़ारिश है
कहाँ मुमकिन किसी को बारयाबी उन की महफ़िल में
न इत्मीनान-ए-कोशिश है न उम्मीद-ए-सिफ़ारिश है
निहाँ है दिल पज़ीरी जिस के हर हर लफ़्ज़-ए-शीरीं में
ये किस जान-ए-वफ़ा के हाथ की रंगीं निगारिश है
किया था एक दिन दिल ने जो दावा-ए-शकेबाई
सो अब तक उन के नाज़-ए-दिलबरी को हम से काविश है
हुजूम-ए-यास ने बे-दिल किया ऐसा कि 'हसरत' को
तिरे आने की अब उम्मीद बाक़ी है न ख़्वाहिश है
ग़ज़ल
मुक़र्रर कुछ न कुछ इस में रक़ीबों की भी साज़िश है
हसरत मोहानी