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मुंतज़िर रहना भी क्या चाहत का ख़म्याज़ा नहीं | शाही शायरी
muntazir rahna bhi kya chahat ka KHamyaza nahin

ग़ज़ल

मुंतज़िर रहना भी क्या चाहत का ख़म्याज़ा नहीं

मुज़फ़्फ़र वारसी

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मुंतज़िर रहना भी क्या चाहत का ख़म्याज़ा नहीं
कान दस्तक पर लगे हैं घर का दरवाज़ा नहीं

हाथ पर तू ने मुक़द्दर की लकीरें खींच दीं
क्या तुझे भी मेरे मुस्तक़बिल का अंदाज़ा नहीं

देखना चाहूँ तो ख़ुश्बू, छूना चाहूँ तो हवा
मेरे दामन तक जो आए तू वो शीराज़ा नहीं

दफ़न हूँ एहसास की सदियों पुरानी क़ब्र में
ज़िंदगी इक ज़ख़्म है और ज़ख़्म भी ताज़ा नहीं

तुम ही ऐ ख़ामोशियो पत्थर उठा लो हाथ में
कोई नग़्मा कोई नाला कोई आवाज़ा नहीं

हुस्न पहचानेगी मेरा देखने वाली नज़र
ख़ूँ तो है आँखों में चेहरे पर अगर ग़ाज़ा नहीं

माँगते हैं क्यूँ 'मुज़फ़्फ़र' लोग बारिश की दुआ
तिश्नगी-ए-रूह का जिस्मों को अंदाज़ा नहीं