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मुंतज़िर दश्त-ए-दिल-ओ-जाँ है कि आहू आए | शाही शायरी
muntazir dasht-e-dil-o-jaan hai ki aahu aae

ग़ज़ल

मुंतज़िर दश्त-ए-दिल-ओ-जाँ है कि आहू आए

शहज़ाद अहमद

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मुंतज़िर दश्त-ए-दिल-ओ-जाँ है कि आहू आए
सारे मंज़र ही बदल जाएँ अगर तू आए

नींद आए तो अचानक तिरी आहट सुन लूँ
जाग उठ्ठूँ तो बदन से तिरी ख़ुश्बू आए

बे-हुनर हाथ चमकने लगा सूरज की तरह
आज हम किस से मिले आज किसे छू आए

सौत ही सौत है तस्वीर ही तस्वीर है तू
याद तेरी कई बातें कई पहलू आए

हम तुझे देखते ही नक़्श-ब-दीवार हुए
अब वही तुझ से मिलेगा जिसे जादू आए

अपने ही अक्स को पानी में कहाँ तक देखूँ
हिज्र की शाम है कोई तो लब-ए-जू आए

किसी जानिब नज़र आता नहीं बादल कोई
और जब सैल-ए-बला आए तो हर-सू आए

चाहता हूँ कि हो परवाज़ सितारों से बुलंद
और मिरे हिस्से में टूटे हुए बाज़ू आए

दर्द में डूबी हुई राख में नहलाई हुई
रात यूँ आई है जैसे कोई साधू आए

रास्ता रोक सकी हैं न फ़सीलें न हिसार
फूल जंगल में खिले शहर में ख़ुश्बू आए

आसमानों पे न तारे हैं न बादल है न चाँद
अब तो मुमकिन है कहीं से कोई जुगनू आए

वक़्त-ए-रुख़्सत मिरे हमराह कोई कब आया
और अगर लौट के आए भी तो आँसू आए

रोग भी तू ने लगाया है अनोखा 'शहज़ाद'
अब कहाँ से तिरे इस दर्द का दारू आए