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मुंतशिर हो कर रहे ये ऐसा शीराज़ा न था | शाही शायरी
muntashir ho kar rahe ye aisa shiraaza na tha

ग़ज़ल

मुंतशिर हो कर रहे ये ऐसा शीराज़ा न था

गुलज़ार वफ़ा चौदरी

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मुंतशिर हो कर रहे ये ऐसा शीराज़ा न था
ख़ाक हो जाना मिरे होने का ख़म्याज़ा न था

मैं बुतून-ए-ज़ात में और तू ख़ला में गुम रहा
ख़ाक के जौहर का हम दोनों को अंदाज़ा न था

आब-पाशी से रहे ग़ाफ़िल शजर-कारी के बा'द
अब जो देखा एक पौदा भी तर-ओ-ताज़ा न था

हम में जो आज़ाद था आज़ाद-तर हो कर रहा
अब वही बे-घर है जिस के घर का दरवाज़ा न था

जब्र के एहसास की आवाज़ तो पहले भी थी
इंक़लाब-ए-क़िस्मत-ए-आदम का आवाज़ा न था