मुँह से पर्दा न उठे साहब-ए-मन याद रहे
फिर क़यामत ही अयाँ है ये सुख़न याद रहे
छोड़ो इतनी न ज़बाँ ग़ुंचा-दहन याद रहे
फिर हमारे भी दहन है ये सुख़न याद रहे
कूचा-गर्दों में नहीं हम जो ये कूचा छोड़ें
ख़ाक करना है हमें याँ है बदन याद रहे
अहद आने का किया है तो गिरह बंद में दे
इस से शायद तुझे ऐ अहद-शिकन याद रहे
आप के कूचे को हम काबा-ए-मक़्सूद समझ
भूल बैठे हैं सब आराम-ए-वतन याद रहे
हर्फ़ उठ जाने का कह बैठे हो अब तो लेकिन
फिर न कहियेगा कभी क़िबला-ए-मन याद रहे
सौ चमन एक फ़क़त मुखड़े में उस के हैं 'नज़ीर'
जब ये सूरत हो तो फिर किस को चमन याद रहे

ग़ज़ल
मुँह से पर्दा न उठे साहब-ए-मन याद रहे
नज़ीर अकबराबादी