मुँह फेरता नहीं है किसी काम से बदन
बिखरा पड़ा है आज मगर शाम से बदन
भूला नहीं है अब भी तिरा लम्स-ए-आख़िरी
लो फिर सिहर उठा है तिरे नाम से बदन
मुद्दत में जिस तरह कोई बिछड़ा हुआ मिले
ऐसे लिपट गया है दर-ओ-बाम से बदन
छिलके तो बूँद बूँद मिरे जिस्म पर गिरे
चिपका लिया है मैं ने तिरे जाम से बदन
थोड़ा तो चलने फिरने दे मुझ को मिरे हकीम
थक सा गया है रोज़ के आराम से बदन
ग़ज़ल
मुँह फेरता नहीं है किसी काम से बदन
कुलदीप कुमार