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मुँह-अँधेरे ही कोई घर से निकलता हुआ था | शाही शायरी
munh-andhere hi koi ghar se nikalta hua tha

ग़ज़ल

मुँह-अँधेरे ही कोई घर से निकलता हुआ था

नदीम अहमद

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मुँह-अँधेरे ही कोई घर से निकलता हुआ था
एक मंज़र था कि मंज़र से निकलता हुआ था

एक ख़िल्क़त कि न होने में फँसी जाती थी
और मैं होने के चक्कर से निकलता हुआ था

कुछ तो वो ख़ुद ही चला आया था बाहर बाहर
और कुछ मैं भी अब अंदर से निकलता हुआ था

ख़ूब रौशन सी कोई चीज़ मिरे सामने थी
और धुआँ था कि मिरे सर से निकलता हुआ था

मुद्दतों यूँ ही तह-ए-बाल चले आते थे
आसमाँ था कि मिरे पर से निकलता हुआ था