मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ
अब ये भी है बहुत कि तुम्हें याद आ सकूँ
ये क्या तिलिस्म है कि तिरी जल्वा-गाह से
नज़दीक आ सकूँ न कहीं दूर जा सकूँ
ज़ौक़-ए-निगाह और बहारों के दरमियाँ
पर्दे गिरे हैं वो कि न जिन को उठा सकूँ
किस तरह कर सकोगे बहारों को मुतमइन
अहल-ए-चमन जो मैं भी चमन में न आ सकूँ
तेरी हसीं फ़ज़ा में मिरे ऐ नए वतन
ऐसा भी है कोई जिसे अपना बना सकूँ
'आज़ाद' साज़-ए-दिल पे हैं रक़्साँ वो ज़मज़मे
ख़ुद सुन सकूँ मगर न किसी को सुना सकूँ
ग़ज़ल
मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ
जगन्नाथ आज़ाद