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मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ | शाही शायरी
mumkin nahin ki bazm-e-tarab phir saja sakun

ग़ज़ल

मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ

जगन्नाथ आज़ाद

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मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ
अब ये भी है बहुत कि तुम्हें याद आ सकूँ

ये क्या तिलिस्म है कि तिरी जल्वा-गाह से
नज़दीक आ सकूँ न कहीं दूर जा सकूँ

ज़ौक़-ए-निगाह और बहारों के दरमियाँ
पर्दे गिरे हैं वो कि न जिन को उठा सकूँ

किस तरह कर सकोगे बहारों को मुतमइन
अहल-ए-चमन जो मैं भी चमन में न आ सकूँ

तेरी हसीं फ़ज़ा में मिरे ऐ नए वतन
ऐसा भी है कोई जिसे अपना बना सकूँ

'आज़ाद' साज़-ए-दिल पे हैं रक़्साँ वो ज़मज़मे
ख़ुद सुन सकूँ मगर न किसी को सुना सकूँ