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मुल्क-ए-सुख़न में दर्द की दौलत को क्या हुआ | शाही शायरी
mulk-e-suKHan mein dard ki daulat ko kya hua

ग़ज़ल

मुल्क-ए-सुख़न में दर्द की दौलत को क्या हुआ

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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मुल्क-ए-सुख़न में दर्द की दौलत को क्या हुआ
ऐ शहर-ए-'मीर' तेरी रिवायत को क्या हुआ

हम तो सदा के बंदा-ए-ज़र थे हमारा क्या
नाम-आवरान-ए-अहद-ए-बग़ावत को क्या हुआ

गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-कूचा-ए-शोहरत में आ के देख
आसूदगान-ए-कुंज-ए-क़नाअत को क्या हुआ

घर से निकल के भी वही ताज़ा हवा का ख़ौफ़
मीसाक़-ए-हिज्र तेरी बशारत को क्या हुआ