मुझे यक़ीन दिला हालत-ए-गुमाँ से निकाल
ग़म-ए-हयात को बढ़ते हुए ज़ियाँ से निकाल
फिर इस के ब'अद जहाँ तू कहे गुज़ारूँगा
बस एक बार ज़रा कर्ब-ए-जिस्म-ओ-जाँ से निकाल
मैं ऐन अपने हदफ़ पर लगूँगा, शर्त लगा
ज़रा सा खींच मुझे और फिर कमाँ से निकाल
मैं अपने जिस्म के अंदर न दफ़्न हो जाऊँ
मुझे वजूद के गिरते हुए मकाँ से निकाल
मैं एक शोला-ए-बदमस्त ही सही लेकिन
मैं जल रहा हूँ मुझे मेरे दरमियाँ से निकाल
ऐ डालियों पे नए फल उगाने वाली दुआ
मिरे शजर को भी इस हालत-ए-ख़िज़ाँ से निकाल
बुला रही है तुझे भी हवस की शहज़ादी
तू अपने आप को इस लम्हा-ए-रवाँ से निकाल
जिसे बहिश्त में आदम ने चख लिया था 'अतीब'
मैं खा रहा हूँ वही फल, मुझे यहाँ से निकाल

ग़ज़ल
मुझे यक़ीन दिला हालत-ए-गुमाँ से निकाल
जीम जाज़िल