मुझे उतनी ही क़द्र-ए-ज़िंदगानी होती जाती है
किसी की जितनी मुझ पर मेहरबानी होती जाती है
ख़ुदा मा'लूम ये कैसा ज़माना आता जाता है
कि हर हर साँस अब तो इम्तिहानी होती जाती है
मोहब्बत करने वाला सू-ए-मंज़िल बढ़ता जाता है
जो मुश्किल आती जाती है वो पानी होती जाती है
जिधर जाओ मुसीबत है जिधर देखो मुसीबत है
मुसीबत अब तो जुज़्व-ए-ज़िंदगानी होती जाती है
ख़ुदा का शुक्र दिल राह-ए-वफ़ा में मिटता जाता है
जो फ़ानी चीज़ है वो जावेदानी होती जाती है
हम अपना दौर-ए-माज़ी भूलते जाते हैं ऐ 'शारिब'
क़यामत है हक़ीक़त भी कहानी होती जाती है

ग़ज़ल
मुझे उतनी ही क़द्र-ए-ज़िंदगानी होती जाती है
शारिब लखनवी