मुझे मुश्किल में यूँ अंदाज़ा-ए-मुश्किल नहीं होता
कभी मैं कसरत-ए-अफ़्कार से बद-दिल नहीं होता
अगर होना पड़े मन्नत-कश-ए-अम्वाज भी मुझ को
तू फिर मेरी ख़ुदी को कुछ ग़म-ए-साहिल नहीं होता
नहीं कुछ पास-ए-ग़ैरत जिस को उस का ज़िक्र ही क्या है
जो ग़ैरत-मंद है वो दर-ब-दर साइल नहीं होता
झुका करती हैं वो शाख़ें जो होती हैं समर-आवर
वही होता है ख़ुद-सर जो किसी क़ाबिल नहीं होता
लहू की तेरे हर हर बूँद फ़रियादी है गो बिस्मिल
मगर क़ातिल के मुँह पर शिकवा-ए-क़ातिल नहीं होता
दिल-ए-नाकाम फिर ले काम ज़ौक़-ए-सई-ए-पैहम से
कफ़-ए-अफ़सोस मलने से तो कुछ हासिल नहीं होता
यक़ीनन मक़्सद-ए-तख़्लीक़ को समझा हुआ है वो
फ़राएज़ से कभी जो आदमी ग़ाफ़िल नहीं होता
वो इंसाँ है मलक सज्दे गुज़ारें जिस के दामन पर
वो ज़र्रा क्या जो हम-दोश-ए-मह-ए-कामिल नहीं होता
जो रोए देख कर हर हर क़दम पर पाँव के छाले
कभी वो राह-रौ आसूदा-ए-मंज़िल नहीं होता
मिरे सोज़-ए-दरूँ मेरी नवा का फ़ैज़ है 'रिज़वी'
तिरा होना तो वज्ह-ए-गर्मी-ए-महफ़िल नहीं होता
ग़ज़ल
मुझे मुश्किल में यूँ अंदाज़ा-ए-मुश्किल नहीं होता
सय्यद एजाज़ अहमद रिज़वी