मुझे कुछ और भी तपता सुलगता छोड़ जाता है
सहाब अक्सर मेरे सीने पे दरिया छोड़ जाता है
वही इक राएगाँ लम्हा कि मैं जिस का शनावर हूँ
निगाहों में मिरी शहर-ए-तमाशा छोड़ जाता है
गुज़रता है जिस आईने से भी मौसम शरारों का
चमन को साथ ले जाता है सहरा छोड़ जाता है
नवाह-ए-दश्त में ख़ुश-मंज़री तक़्सीम करता है
वो बादल जो मिरी बस्ती को प्यासा छोड़ जाता है
मिरे कमरे की दीवारों में ऐसे आइने भी हैं
कि जिन के पास हर शख़्स अपना चेहरा छोड़ जाता है
वो मेरे राज़ मुझ में चाहता है मुन्कशिफ़ करना
मुझे मेरे घने साए में तन्हा छोड़ जाता है
अजब शोला है 'इशरत' उस का लम्स-ए-बे-निहायत भी
मिरे चारों तरफ़ जो इक उजाला छोड़ जाता है
ग़ज़ल
मुझे कुछ और भी तपता सुलगता छोड़ जाता है
इशरत ज़फ़र