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मुझे किसी पे मोहब्बत का कुछ गुमाँ सा है | शाही शायरी
mujhe kisi pe mohabbat ka kuchh guman sa hai

ग़ज़ल

मुझे किसी पे मोहब्बत का कुछ गुमाँ सा है

शफ़क़ सुपुरी

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मुझे किसी पे मोहब्बत का कुछ गुमाँ सा है
वो बे-सबब ही सही मुझ पे मेहरबाँ सा है

यहाँ पे अब कोई मौसम नहीं उदासी का
कि मेरा दिल भी मिरे शहर-ए-बे-अमाँ सा है

कहाँ उतार लूँ तेरी नज़र की पाक किरन
किनारा-ए-दिल-ओ-जाँ तक धुआँ धुआँ सा है

ये ज़ूद रंग हवाओं के मौसमों का नगर
फ़रेब हो कि वफ़ा जो है ना-गहाँ सा है

ज़रा अजब ज़रा दिलचस्प और ज़रा ग़मनाक
फ़साना तेरे 'शफ़क़' का भी दास्ताँ सा है