मुझे ख़बर थी मिरा इंतिज़ार घर में रहा
ये हादिसा था कि मैं उम्र भर सफ़र में रहा
मैं रक़्स करता रहा सारी उम्र वहशत में
हज़ार हल्क़ा-ए-ज़ंजीर बाम-ओ-दर में रहा
तिरे फ़िराक़ की क़ीमत हमारे पास न थी
तिरे विसाल का सौदा हमारे सर में रहा
ये आग साथ न होती तो राख हो जाते
अजीब रंग तिरे नाम से हुनर में रहा
अब एक वादी-ए-निस्याँ में छुपता जाता है
वो एक साया कि यादों की रहगुज़र में रहा
ग़ज़ल
मुझे ख़बर थी मिरा इंतिज़ार घर में रहा
साक़ी फ़ारुक़ी