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मुझे इल्ज़ाम न दे तर्क-ए-शकेबाई का | शाही शायरी
mujhe ilzam na de tark-e-shakebai ka

ग़ज़ल

मुझे इल्ज़ाम न दे तर्क-ए-शकेबाई का

अंदलीब शादानी

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मुझे इल्ज़ाम न दे तर्क-ए-शकेबाई का
मुझ से पोशीदा है आलम तिरी रा'नाई का

माना-ए-जल्वागरी ख़ौफ़ है रुस्वाई का
बस उसी पर तुम्हें दा'वा है ज़ुलेख़ाई का

क्या कहूँ गर उसे एजाज़-ए-मोहब्बत न कहूँ
हुस्न ख़ुद महव-ए-तमाशा है तमाशाई का

अश्क जो आँख से बाहर नहीं आने पाता
आईना है मिरे जज़्बात की गहराई का

तेरे आग़ोश में क्या जानिए क्या आलम हो
दिल धड़कता है तसव्वुर से तमन्नाई का

शिकन-ए-बिस्तर-ओ-नमनाकी-ए-बारिश हैं गवाह
पूछ लो उन से फ़साना शब-ए-तन्हाई का

कशिश-ए-बद्र से चढ़ता हुआ दरिया देखा
अल्लाह अल्लाह वो आलम तिरी अंगड़ाई का