मुझे दर से अपने तू टाले है ये बता मुझे तू कहाँ नहीं
कोई और भी है तिरे सिवा तू अगर नहीं तू जहाँ नहीं
पड़ी जिस तरफ़ को निगाह याँ नज़र आ गया है ख़ुदा ही वाँ
ये हैं गो कि आँखों की पुतलियाँ मिरे दिल में जाए बुताँ नहीं
मिरे दिल के शीशे को बेवफ़ा तू ने टुकड़े टुकड़े ही कर दिया
मिरे पास तो वही एक था याँ दुकान-ए-शीशा-गराँ नहीं
मुझे रात सारी ही तेरे हाँ कटे क्यूँ के रोते न शम्अ' साँ
कि हो सके है कुछ अब बयाँ न ये बात है कि ज़बाँ नहीं
कोई समझे क्यूँ के ये मुद्दआ' कि पहेली सा है ये माजरा
कहा मैं तुझे नहीं चाह क्या लगा कहने मुझ से कि हाँ नहीं
न मिला हमें कोई नुक्ता-दाँ ये बिपत सुना दें भला कहाँ
न हुआ सभों पे वही अयाँ जो कसू से याँ तो निहाँ नहीं
तुझे दर्द क्यूँ कि सुनाऊँ मैं न ख़ुदा किसी को दिखाए ये
जो कुछ अपने जी पे गुज़रती है कहूँ क्या कि उस का बयाँ नहीं
ग़ज़ल
मुझे दर से अपने तू टाले है ये बता मुझे तू कहाँ नहीं
ख़्वाजा मीर 'दर्द'