मुझे अँधेरे में बे-शक बिठा दिया होता
मगर चराग़ की सूरत जला दिया होता
न रौशनी कोई आती मिरे तआक़ुब में
जो अपने-आप को मैं ने बुझा दिया होता
ये दर्द जिस्म के या-रब बहुत शदीद लगे
मुझे सलीब पे दो पल सुला दिया होता
ये शुक्र है कि मिरे पास तेरा ग़म तो रहा
वगर्ना ज़िंदगी ने तो रुला दिया होता
ग़ज़ल
मुझे अँधेरे में बे-शक बिठा दिया होता
गुलज़ार