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मुझ से ऐसे वामांदा-ए-जाँ को बिस्तर-विस्तर क्या | शाही शायरी
mujhse aise wamanda-e-jaan ko bistar-wistar kya

ग़ज़ल

मुझ से ऐसे वामांदा-ए-जाँ को बिस्तर-विस्तर क्या

ज़ेब ग़ौरी

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मुझ से ऐसे वामांदा-ए-जाँ को बिस्तर-विस्तर क्या
पल दो पल को मूँद लूँ आँखें वर्ना घर-वर क्या

छोड़ो क्या रोना ले बैठे रंज-ओ-राहत का
क़ैद ही जब ठहरी हस्ती तो बेहतर-वेहतर क्या

मैं भी सर टकराता फिरा हूँ दीवारों से बहुत
ढूँढ रहे हो इस गुम्बद में कोई दर-वर क्या

आख़िर को थक-हार के मुझ को ज़मीन पर आना है
ज़ोर-ओ-शोर-ए-बाज़ू कैसा शहपर-वहपर क्या

मेरे क़लम ही से जब मेरा रिज़्क़ उतरा है
जाना है इक कार-ए-ज़ियाँ को दफ़्तर-वफ़्तर क्या

सूरत एक तराशूँगा तो सौ रह जाएँगी
क्यूँ पत्थर को सुबुक करूँ मैं पैकर-वैकर क्या

बालीदा बार-आवर होना मिट्टी हो जाना
सरसब्ज़ ज़रख़ेज़ी कैसी बंजर-वंजर क्या

आब ओ सराब ओ ख़्वाब ओ हक़ीक़त एक से लगते हैं
दीदा-वरी क्या आईना का जौहर-वौहर क्या

मुझ को बहाए ले जाती है ख़ुद ही मौज मिरी
मेरा रस्ता रोक सकेंगे पत्थर-वत्थर क्या

रंग-ए-शफ़क़ सब्ज़े का नशा कुछ नहीं आँखों में
दूर ख़ला में देख रहा हूँ मंज़र-वंज़र क्या

मेरा और साहिल का रिश्ता कब का टूट चुका
'ज़ेब' कहाँ का ख़ेमा-ए-कश्ती लंगर-वंगर क्या