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मुझ से अब तक ये गिला है मिरे ग़म-ख़्वारों को | शाही शायरी
mujhse ab tak ye gila hai mere gham-KHwaron ko

ग़ज़ल

मुझ से अब तक ये गिला है मिरे ग़म-ख़्वारों को

कफ़ील आज़र अमरोहवी

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मुझ से अब तक ये गिला है मिरे ग़म-ख़्वारों को
क्यूँ छुआ मैं ने तिरी याद के अँगारों को

ज़ेहन ओ दिल हश्र के सूरज की तरह जलते हैं
जब से छोड़ा है तिरे शहर की दीवारों को

आज भी आप की यादों के मुक़द्दस झोंके
छेड़ जाते हैं मोहब्बत के गुनहगारों को

आरज़ू सोच तड़प दर्द कसक ग़म आँसू
हम से क्या क्या न मिला हिज्र के बाज़ारों को

तेरे जलते हुए होंटों की हरारत न मिली
मेरी तन्हाई के भीगे हुए रुख़्सारों को

तुम को माहौल से हो जाएगी नफ़रत 'आज़र'
इतने नज़दीक से देखा न करो यारों को