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मुझ सा बेताब यहाँ कोई नहीं मेरे सिवा | शाही शायरी
mujh sa betab yahan koi nahin mere siwa

ग़ज़ल

मुझ सा बेताब यहाँ कोई नहीं मेरे सिवा

अरशद अब्दुल हमीद

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मुझ सा बेताब यहाँ कोई नहीं मेरे सिवा
यानी बर्बाद-ए-जहाँ कोई नहीं मेरे सिवा

रौशनी थी तो कई साए नज़र आते थे
तीरगी है तो यहाँ कोई नहीं मेरे सिवा

भीड़ में एक तरफ़ गोशा-ए-इख़्लास भी है
ग़ौर से देख वहाँ कोई नहीं मेरे सिवा

शहर मेरे ही भरोसे पे हो ख़ुफ़्ता जैसे
हदफ़-ए-शोर-ए-सगाँ कोई नहीं मेरे सिवा

सर-बुलंदी मिरी तंहाई तक आ पहुँची है
मैं वहाँ हूँ कि जहाँ कोई नहीं मेरे सिवा

शेर में ग़ैर की तश्बीह कहाँ से आए
मेरी मानिंद यहाँ कोई नहीं मेरे सिवा

चैन लिखता है मिरे ख़्वाब का रावी 'राशिद'
इस समुंदर में रवाँ कोई नहीं मेरे सिवा