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मुझ सा अंजान किसी मोड़ पे खो सकता है | शाही शायरी
mujh sa anjaan kisi moD pe kho sakta hai

ग़ज़ल

मुझ सा अंजान किसी मोड़ पे खो सकता है

तहसीन फ़िराक़ी

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मुझ सा अंजान किसी मोड़ पे खो सकता है
हादसा कोई भी इस शहर में हो सकता है

सतह-ए-दरिया का ये सफ़्फ़ाक सुकूँ है धोका
ये तिरी नाव किसी वक़्त डुबो सकता है

ख़ुद कुआँ चल के करे तिश्ना-दहानों को ग़रीक़
ऐसा मुमकिन है मिरी जान ये हो सकता है

बे-तरह गूँजता है रूह के सन्नाटे में
ऐसे सहरा में मुसाफ़िर कहाँ सो सकता है

क़त्ल से हाथ उठाता नहीं क़ातिल न सही
ख़ून से लुथड़े हुए हाथ तो धो सकता है

झूम कर उठता नहीं खुल के बरसना कैसा
कैसा बादल है कि हँसता है न रो सकता है

जुज़ मिरे रिश्ता-ए-अनफ़ास-ए-गिरह-गीर में कौन
गुहर-ए-अश्क-ए-शरर-बार पिरो सकता है