मुझ पे रखते हैं हश्र में इल्ज़ाम
आ न जाए ज़बाँ पे तेरा नाम
ज़ब्त की कोशिशें भी जारी हैं
दर्द भी कर रहा है अपना काम
जो इबारत न हो तिरे ग़म से
अहल-ए-दिल पर वो ज़िंदगी है हराम
वक़्फ़ा-ए-मौत भी ग़नीमत है
कुछ तो फ़िल-जुमला मिल गया आराम
उस ने देखा है शाम का मंज़र
जिस ने देखी है बेकसों की शाम
किस से अब दर्द की दवा चाहूँ
दर्द उठता है ले के तेरा नाम
अब क़यामत क़रीब है 'फ़ानी'
फ़ित्ना-ए-इश्क़ हो चला है तमाम
ग़ज़ल
मुझ पे रखते हैं हश्र में इल्ज़ाम
फ़ानी बदायुनी