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मुझ ना-तवाँ पे हश्र में वहम-ए-फुग़ाँ ग़लत | शाही शायरी
mujh na-tawan pe hashr mein wahm-e-fughan ghalat

ग़ज़ल

मुझ ना-तवाँ पे हश्र में वहम-ए-फुग़ाँ ग़लत

सालिक देहलवी

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मुझ ना-तवाँ पे हश्र में वहम-ए-फुग़ाँ ग़लत
मैं गुफ़्तुगू की ताब रखूँ ये गुमाँ ग़लत

तुम भी वही कहो तो कहें सब बजा दुरुस्त
मैं भी वही कहूँ तो कहे इक जहाँ ग़लत

गर्मी से उस के हुस्न की किस का जिगर जला
तश्बीह-ए-मेहर-ए-रू-ए-निकू-ए-बुताँ ग़लत

कहिए असीर-ए-ख़्वाहिश-ए-सुम्बुल कोई हुआ
देनी मिसाल-ए-काकुल-ए-अंबर-फ़िशाँ ग़लत

सच है कि आदमी को ग़रज़ आदमी से है
वाइ'ज़ बयान-ए-दिलकश-ए-हूर-ए-जिनाँ ग़लत

कह कर तमाम 'सालिक'-ए-ग़म-गीं का माजरा
मैं ने कहा ग़लत है तो बोले कि हाँ ग़लत