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मुझ में मौजूद है जो चाक नहीं खुलता कुछ | शाही शायरी
mujh mein maujud hai jo chaak nahin khulta kuchh

ग़ज़ल

मुझ में मौजूद है जो चाक नहीं खुलता कुछ

कृष्ण कुमार तूर

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मुझ में मौजूद है जो चाक नहीं खुलता कुछ
ये मिरा दीदा-ए-नमनाक नहीं खुलता कुछ

नक़्श उभरेगा कोई या कि नहीं उभरेगा
क्या है पोशीदा तह-ए-ख़ाक नहीं खुलता कुछ

ये तो तय है कि अब इस दिल का ज़ियाँ लाज़िम है
वो है मासूम कि चालाक नहीं खुलता कुछ

मुंतज़िर कौन से मैं आलम-ए-असबाब का हूँ
क्या है अब क़िस्मत-ए-ख़ाशाक नहीं खुलता कुछ

क्यूँ भला उस की निशानी नहीं मिलती मुझ को
क्यूँ भला ग़ुर्फ़ा-ए-इदराक नहीं खुलता कुछ

अब ये क्या है मिरे अतराफ़ नहीं आता समझ
और ये मतला-ए-पेचाक नहीं खुलता कुछ

बंद क्यूँ अश्क न हों तब्-ए-रवाँ से ऐ 'तूर'
वो भी तो सूरत-ए-अफ़्लाक नहीं खुलता कुछ