मुझ को तुझ से जो कुछ मोहब्बत है 
ये मोहब्बत नहीं है आफ़त है 
लोग कहते हैं आशिक़ी जिस को 
मैं जो देखा बड़ी मुसीबत है 
बंद अहकाम-ए-अक़्ल में रहना 
ये भी इक नौअ की हिमाक़त है 
एक ईमान है बिसात अपनी 
न इबादत न कुछ रियाज़त है 
आ फँसूँ मैं बुतों के दाम में यूँ 
'दर्द' ये भी ख़ुदा की क़ुदरत है
        ग़ज़ल
मुझ को तुझ से जो कुछ मोहब्बत है
ख़्वाजा मीर 'दर्द'

