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मुझ को तुझ से जो कुछ मोहब्बत है | शाही शायरी
mujhko tujhse jo kuchh mohabbat hai

ग़ज़ल

मुझ को तुझ से जो कुछ मोहब्बत है

ख़्वाजा मीर 'दर्द'

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मुझ को तुझ से जो कुछ मोहब्बत है
ये मोहब्बत नहीं है आफ़त है

लोग कहते हैं आशिक़ी जिस को
मैं जो देखा बड़ी मुसीबत है

बंद अहकाम-ए-अक़्ल में रहना
ये भी इक नौअ की हिमाक़त है

एक ईमान है बिसात अपनी
न इबादत न कुछ रियाज़त है

आ फँसूँ मैं बुतों के दाम में यूँ
'दर्द' ये भी ख़ुदा की क़ुदरत है