मुझ को तिरे सुलूक से कोई गिला न था
ज़हर अब पी रहा था मगर लब-कुशा न था
काँटों से जिस्म छलनी है मेरा इसी लिए
फूलों से प्यार करने का कुछ तजरबा न था
लाखों तमाश-बीन हैं और हम सलीब पर
इक वक़्त वो था कोई हमें देखता न था
क्या जाने उस की आँख में क्यूँ अश्क आ गए
चेहरे पे मेरे कुछ भी तो लिखा हुआ न था
दुनिया समझ न पाएगी मजबूरियाँ तिरी
मुझ को तो है यक़ीन कि तू बेवफ़ा न था
क्या तू ने छोड़ रक्खा है ज़ुल्फ़ें सँवारना
इतना तो पहले मैं कभी उलझा हुआ न था
ग़ुर्बत की चाँदनी ने दिखाए थे रास्ते
हम को किसी चराग़ से कोई गिला न था
यादों ने दस्तकें तो बहुत बार दीं 'शकील'
लेकिन किसी के दिल का दरीचा खुला न था
ग़ज़ल
मुझ को तिरे सुलूक से कोई गिला न था
शकील शम्सी