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मुझ को तिरे ख़याल से वहशत कभी न थी | शाही शायरी
mujhko tere KHayal se wahshat kabhi na thi

ग़ज़ल

मुझ को तिरे ख़याल से वहशत कभी न थी

शकील जाज़िब

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मुझ को तिरे ख़याल से वहशत कभी न थी
इस दर्जा बे-अदब ये तबीअत कभी न थी

हद है उसी के पास है किरदार की सनद
जिस की तमाम शहर में इज़्ज़त कभी न थी

यारो दुआ करो ये कोई हादसा न हो
पहले यूँ इंतिज़ार में लज़्ज़त कभी न थी

या तो जफ़ाएँ आप की हद से गुज़र गईं
या फिर हमें सज़ाओं की आदत कभी न थी

'जाज़िब' ग़म-ए-हयात की तल्ख़ी ज़बाँ पे है
वर्ना हमें जहाँ से शिकायत कभी न थी