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मुझ को शिकस्तगी का क़लक़ देर तक रहा | शाही शायरी
mujhko shikastagi ka qalaq der tak raha

ग़ज़ल

मुझ को शिकस्तगी का क़लक़ देर तक रहा

बेकल उत्साही

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मुझ को शिकस्तगी का क़लक़ देर तक रहा
क्यूँ चेहरा फिर जनाब का फ़क़ देर तक रहा

यूँ तो कई किताबें पढ़ीं ज़ेहन में मगर
महफ़ूज़ एक सादा वरक़ देर तक रहा

अक्सर शब-ए-विसाल तिरे रूठने के बाद
एहसास पर तिलिस्म-ए-रमक़ देर तक रहा

अब है किताब-ए-इश्क़ में जो सादा ओ सलीस
पहले वो लफ़्ज़ लफ़्ज़-ए-अदक़ देर तक रहा

सूरज के सर को शाम के नेज़े पे देख कर
दस्त-ए-ज़मीं पे रंग-ए-शफ़क़ देर तक रहा

उस का जवाब एक ही लम्हे में ख़त्म था
फिर भी मिरे सवाल का हक़ देर तक रहा

'बेकल' जिसे भुला के ज़माना है मुतमइन
तुझ को ही याद वो भी सबक़ देर तक रहा