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मुझ को ना-कर्दा गुनह का मो'तरिफ़ होना पड़ा | शाही शायरी
mujhko na-karda gunah ka motarif hona paDa

ग़ज़ल

मुझ को ना-कर्दा गुनह का मो'तरिफ़ होना पड़ा

ऐन ताबिश

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मुझ को ना-कर्दा गुनह का मो'तरिफ़ होना पड़ा
रस्म ऐसी थी कि ख़ुद से मुन्हरिफ़ होना पड़ा

कोई भी मुझ सा न था बेबाक बज़्म-ए-शौक़ में
इस तरह मुझ को सभों से मुख़्तलिफ़ होना पड़ा

एक ही शय थी कि जिस पर बच रहा था ए'तिमाद
पस मुझे अपनी अना से मुत्तसिफ़ होना पड़ा

वो यक़ीनन राज़-अंदर-राज़ था लेकिन उसे
एक दिन मुझ ना-तवाँ पर मुन्कशिफ़ होना पड़ा

क्या बताऊँ मा'बद-ए-तन्हाई में मुझ रिंद को
उम्र-भर के वास्ते क्यूँ मोतकिफ़ होना पड़ा