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मुझ को मुआफ़ कीजिए रिंद-ए-ख़राब जान के | शाही शायरी
mujhko muaf kijiye rind-e-KHarab jaan ke

ग़ज़ल

मुझ को मुआफ़ कीजिए रिंद-ए-ख़राब जान के

नौशाद अली

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मुझ को मुआफ़ कीजिए रिंद-ए-ख़राब जान के
आँखों पे होंट रख दिए जाम-ए-शराब जान के

हश्र में ऐ ख़ुदा न ले मुझ से हिसाब-ए-ख़ैर-ओ-शर
मैं ने तो सब भुला दिया रात का ख़्वाब जान के

वक़्त ने अज़-रह-ए-करम बख़्शा था मुझ को ताज-ए-ज़र
मैं ने ही ख़ुद झटक दिया सर का अज़ाब जान के

मुंसिफ़-ए-वक़्त आख़िरश तुझ को भी चुप सी लग गई
मेरा सवाल पूछ के उन का जवाब जान के

आप को गर न याद हो अपनी जफ़ाओं का शुमार
देखिए मुझ को ग़ौर से फ़र्द-ए-हिसाब जान के

अपनी ज़बाँ से किस तरह क़िस्सा-ए-ग़म बयाँ करूँ
पढ़िए मिरी निगाह को दिल की किताब जान के

ये तो न कहिए वक़्त-ए-दीद सब थी ख़ता नसीम की
आप ने रू-ए-नाज़ पे डाली नक़ाब जान के