मुझ को मत छूना कि रिस कर फूटने वाला हूँ मैं
तुझ को क्या मालूम तेरे तंज़ का छाला हूँ मैं
आज ज़ेहनों में हूँ लेकिन कल का अंदेशा हूँ मैं
दरमियाँ दोनों के गिर कर टूटता रिश्ता हूँ मैं
आड़ी-तिरछी सी लकीरें खींचता हूँ और फिर
उस को हर मंज़र में रख कर रंग भर देता हूँ मैं
वो तो यूँ ख़ुश है समझता है कि मैं तैराक हूँ
उस को क्या मालूम ख़ुद ही डूबने वाला हूँ मैं
अपनी गुल-पोशी पे मैं नादिम भी हूँ सरशार भी
हार कर जीता हूँ जाने जीत कर हारा हूँ मैं
ग़ज़ल
मुझ को मत छूना कि रिस कर फूटने वाला हूँ मैं
रौनक़ रज़ा