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मुझ को मरने की कोई उजलत न थी | शाही शायरी
mujhko marne ki koi ujlat na thi

ग़ज़ल

मुझ को मरने की कोई उजलत न थी

हामिदी काश्मीरी

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मुझ को मरने की कोई उजलत न थी
ख़ुद से मिलने की कोई सूरत न थी

देखते क्या हुस्न की नैरंगियाँ
आँख झपकाने की भी फ़ुर्सत न थी

ख़ुद-ब-ख़ुद ये ज़ख़्म लौ देने लगे
मुझ को कोई हाजत-ए-शोहरत न थी

उठ रहा है दिल से आहों का धुआँ
महफ़िल-ए-शब महफ़िल-ए-इशरत न थी

पेड़ पत्ते जल के ख़ाकिस्तर हुए
दोस्तो वो बारिश-ए-रहमत न थी

अपने चेहरे अजनबी होते गए
उन की आँखों में कोई हैरत न थी