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मुझ को लेना है तिरे रंग-ए-हिना का बोसा | शाही शायरी
mujhko lena hai tere rang-e-hina ka bosa

ग़ज़ल

मुझ को लेना है तिरे रंग-ए-हिना का बोसा

रियाज़ ख़ैराबादी

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मुझ को लेना है तिरे रंग-ए-हिना का बोसा
दस्त-ए-रंगीं का मिले या कफ़-ए-पा का बोसा

रंग उड़ जाए जो मिंक़ार-ए-अना दिल छू ले
है गराँ गुल को लब-ए-मौज-ए-सबा का बोसा

चूमता हाथ मैं साक़ी के अदब माने था
ले लिया जाम-ए-मय-ए-होश-रुबा का बोसा

बिजली हर लहर से पैदा हो तिरे कूचे में
ले मिरा हर नफ़स-ए-गर्म हवा का बोसा

मैं वो साग़र नहीं आए कभी लब तक जो 'रियाज़'
किस को मिलता है तिरे रंग-ए-हिना का बोसा