EN اردو
मुझ को दुश्वार हुआ जिस का नज़ारा तन्हा | शाही शायरी
mujhko dushwar hua jis ka nazara tanha

ग़ज़ल

मुझ को दुश्वार हुआ जिस का नज़ारा तन्हा

सलीम अहमद

;

मुझ को दुश्वार हुआ जिस का नज़ारा तन्हा
काश मिल जाए कहीं मुझ को दोबारा तन्हा

ऐ शब-ए-हिज्र मुझे तू ने तो देखा होगा
मेरी मानिंद न था सुबह का तारा तन्हा

तुम न ठहरे तो कहाँ मौज-ए-गुरेज़ाँ रुकती
मेरी आग़ोश की सूरत है किनारा तन्हा

उज़्र क्या क्या न तराशा किए अरबाब-ए-हवस
जान देने का हुआ इश्क़ को यारा तन्हा

यूँ भी महसूस हुआ जैसे कि मैं ही तो हूँ
एक लम्हे में जिसे मैं ने गुज़ारा तन्हा

यूँ तो दुनिया में बहुत हैं कि रहे हैं नाकाम
बाज़ी-ए-इश्क़ को मैं जान के हारा तन्हा

तू ने ऐ यार अज़ीज़ाँ ये इनायत क्यूँ की
ज़िंदगी यूँ भी न थी मुझ को गवारा तन्हा