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मुझ को दिमाग़-ए-गर्मी-ए-बाज़ार है कहाँ | शाही शायरी
mujhko dimagh-e-garmi-e-bazar hai kahan

ग़ज़ल

मुझ को दिमाग़-ए-गर्मी-ए-बाज़ार है कहाँ

तालिब चकवाली

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मुझ को दिमाग़-ए-गर्मी-ए-बाज़ार है कहाँ
अफ़्सुर्दगी में लज़्ज़त-ए-गुफ़्तार है कहाँ

यारान-ए-मस्लहत में नहीं जौहर-ए-वफ़ा
अहल-ए-ग़रज़ में ख़ूबी-ए-किरदार है कहाँ

लाखों की भीड़ में भी हूँ सब से अलग-थलग
इस शहर में ग़रीब का ग़म-ख़्वार है कहाँ

जल्वों को भी है चश्म-ए-तमाशा की जुस्तुजू
वो पूछते हैं तालिब-ए-दीदार है कहाँ

काँटों में आ गई है गुल-ए-तर की ताज़गी
अब लुत्फ़-ए-सैर-ए-वादी-ए-पुर-ख़ार है कहाँ

नाकामियों की धूप में जलते हैं दिल-जले
सहरा-ए-ग़म में साया-ए-दीवार है कहाँ

शौक़-ए-हुसूल-ए-ज़र है तो ज़ौक़-ए-सुख़न न रख
नूर-ए-सहर कहाँ है शब-ए-तार है कहाँ

दिल्ली की भीड़-भाड़ में गुम हो गया है दिल
तन्हा भटक रहा हूँ दिल-ए-ज़ार है कहाँ

'तालिब' ग़म-ए-हयात ने जीना सिखा दिया
अब ज़िंदगी का बार मुझे बार है कहाँ