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मुझ को दौलत मिली तिरे ग़म की | शाही शायरी
mujhko daulat mili tere gham ki

ग़ज़ल

मुझ को दौलत मिली तिरे ग़म की

सय्यद बशीर हुसैन बशीर

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मुझ को दौलत मिली तिरे ग़म की
क्या हक़ीक़त है अब दो-आलम की

मैं ने गर्दन जहाँ जहाँ ख़म की
इक तजल्ली है नूर-ए-पैहम की

हुस्न ज़ीनत है अहद-ए-मुबहम की
इश्क़ हुरमत है नक़्श-ए-मोहकम की

नाला पहुँचा ब-हद्द-ए-ख़ामोशी
इंतिहा है जुनूँ के आलम की

क्यूँ न वाक़िफ़ हों राज़-ए-हस्ती से
मुझ को हासिल है मअरिफ़त ग़म की

जो था मज़हर वही बना पर्दा
राज़-दारी ये तेरे महरम की

तूर-ए-दिल पर है नूर की बारिश
कितनी अज़्मत है चश्म-ए-पुर-नम की

उन के परतव का नूर हैं दोनों
एक हस्ती है महर ओ शबनम की

सब को हैरत है दो-जहाँ माँगा
मुझ को हसरत कि आरज़ू कम की

कर रहा हूँ दुआ कि दर्द बढ़े
फ़िक्र करता हूँ रोज़ मरहम की

दिल ख़ुदा से लगा 'बशीर' अब तू
पाई बरकत है इस्म-ए-आज़म की