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मुफ़स्सल दास्तानें मुख़्तसर कर के दिखाएँगे | शाही शायरी
mufassal dastanen muKHtasar kar ke dikhaenge

ग़ज़ल

मुफ़स्सल दास्तानें मुख़्तसर कर के दिखाएँगे

ख़ावर जीलानी

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मुफ़स्सल दास्तानें मुख़्तसर कर के दिखाएँगे
तवालत उम्र भर की जस्त भर कर के दिखाएँगे

जो सपने देख रक्खे हैं जहान-ए-दीदा-ए-वा ने
उन्हें ताबीर के ज़ेर-ए-असर कर के दिखाएँगे

ये वो नम-नाकियाँ हैं जो हवा देंगी अलाव को
ये वो आँसू हैं जो ख़ुद को शरर कर के दिखाएँगे

भरोसा रह गया कुछ ख़ाक को हम पर अगर तो हम
फ़ना के सामने जीवन बसर कर के दिखाएँगे

तलफ़्फ़ुज़ पर न हो मौक़ूफ़ जब कुछ तो मआनी को
किसी के लफ़्ज़ क्या ज़ेर-ओ-ज़बर कर के दिखाएँगे

ये बादल क्या दिखाएँगे हवा को मुश्तइल हो कर
ये पत्ते पेड़ को क्या दर-ब-दर कर के दिखाएँगे

इजाज़ा हो गया मोजज़-बयानी का तो हम तेरे
इसी तुख़्म-ए-तहय्युर को शजर कर के दिखाएँगे

अगर पाताल बन जाएगा उस की तह में उतरेंगे
अगर चोटी बनेगा उस को सर कर के दिखाएँगे

गुमाँ जो ओस के क़तरों की सूरत हैं अभी 'ख़ावर'
किसी दिन वो तुम्हें ख़ुद को भँवर कर के दिखाएँगे